Contents
प्राचीन भारत के इतिहास का परिचय (Introduction of ANCIENT INDIA )
भारत की भौगोलिक विशेषताएँ (Geographical Features of India)
भारत एक विशाल देश है। किसी समय यह पूर्व से पश्चिम तक लगभग 2,500 मील एवं उत्तर से दक्षिण तक 2,000 मील के क्षेत्र में चारों ओर फैला हुआ था। इसकी 6,000 मील भू-सीमा तथा 5,000 मील समुद्री हद थी। इसका क्षेत्रफल लगभग २० लाख वर्गमील था जो कि अमरीका का दो-तिहाई तथा ग्रेट ब्रिटेन से 20 गुना बड़ा था। 1947 में भारत-विभाजन के बाद इसका क्षेत्र एक-तिहाई कम हो गया। परन्तु अब भी यह काफी विशाल देश है।
भौगोलिक दृष्टि से भारत पाँच भागों में बाँटा जा सकता है। पहला भाग उत्तरी पर्वतों का है जिसमें पश्चिमी एवं पूर्वी ऊंचाई और उनके ढलान हैं। इसी में मौजूदा कश्मीर, शिवालिक, टिहरी-गढ़वाल, कुमायूँ, नेपाल, सिक्किम तथा भूटान सम्मिलित हैं। यह भाग लगभग 1,500 मील लम्बा और 150 से 200 मील तक विशाल है। दूसरा भाग उत्तरी मैदान है जिनकी सिंचाई सिन्ध एवं गंगा नदी तन्त्र द्वारा होती है। यह मैदान अपनी उपजाऊ भूमि तथा पैदावार के लिए विख्यात है। इसमें आश्चर्य नहीं कि बड़े साम्राज्यों की इसी भाग में स्थापना की गई थी। तीसरा भाग मध्य भारत तथा दक्षिण का पठार है। नर्मदा और ताप्ती पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती हैं। इस भाग की अन्य नदियाँ पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं। शुष्क मौसम में नदियाँ सूख जाती हैं एवं जहाजरानी के योग्य नहीं रहती। विन्ध्य और सतपुड़ा पर्वत उत्तरी भारत को दक्षिण से विभक्त करते हैं। चौथा भाग वह लम्बी परन्तु तंग मैदानों की पट्टी है जो समुद्र और पूर्वी और पश्चिमी घाटों के बीच मौजूद है। ये मैदान लगभग एक हजार मील लम्बे हैं। पश्चिमी मैदान अरब सागर तथा पश्चिमी घाट के बीच मौजूद हैं। कोनकन तथा मालाबार इसी के भाग हैं। पूर्वी मैदान बंगाल की खाड़ी तथा पूर्वी घाट के मध्य में स्थित है। कोरोमंडल किनारा इन्ही मैदानों में स्थित है।
यमुना से ब्रह्मपुत्र तक के मैदान मध्य-देश एवं बीच के देश कहलाते थे। यह टुकड़ा आर्य संस्कृति का केन्द्र था। उत्तर-पश्चिमी भारत उत्तर मार्ग कहलाता था। पूर्वी भारत प्राच्य कहला था तथा दक्षिणी भारत को दक्षिणापथ कहा जाता था।
प्राचीन भारत के इतिहास के परीचय मे भारत के इतिहास पर भूगोल का प्रभाव (Effect of Geography on History of India)
भारत के इतिहास पर भूगोल के परिणाम बडे रुचिकर हैं। हिमालय पर्वत उत्तर का महान् प्रहरी है। वह तिब्बत से आने वाली ठण्डी एवं शुष्क हवाओं को रोकता है। वह उन नदियों का स्त्रोत है जिन्होंने भारत के मैदानों की जमीन को उत्पादक बनाया है। ये पर्वत पानी भरी हवाओं को रोक कर वर्षा करते हैं। इन पर्वतों ने उत्तर की ओर से किये गये आक्रमणों से भारत की रक्षा की है। आधूनिक युग में सिवाय चीनियों के और कोई आक्रमणकारी उत्तरी दरों के पार अपनी सेना भेजने में कामयाब नहीं हुआ है। ये चट्टानें वर्ष के अधिक महीनों में बर्फ से ढके रहते हैं। हिमालय पर्वतों के मौजूदगी के कारण ही किसी भारतीय ने हिमालय को पार करके उत्तरी क्षेत्रों को जीतने का स्वप्न नहीं लिया। फिर भी वर्ष के कुछ सप्ताहों में बर्फ पिघलने के समय इन दरों द्वारा सीमित रूप में यातायात संभव था। यह सम्बन्ध व्यापार तथा सांस्कृतिक काम के लिए था। शायद इन दरों के माध्यम से ही कुछ मंगोलियन खून भारतीय नसों में प्रविष्ट हुआ है। यह हिमालय की उतार में रहने वाले दिखाई देते है। अगर भारत उत्तरी संस्कृति से अधिक प्रभावित नहीं हुआ था, उत्तरी देश भारतीय संस्कृति से प्रभावित हुए। तिब्बत इसका सबूत है जहाँ अनेक भारतीय विद्वान और साधु अपना धर्म और संस्कृति
सुलेमान और हिन्दूकुश पर्वतों
हिमालय का उत्तरी-पश्चिमी भाग सुलेमान और हिन्दूकुश पर्वतों के नाम से मशहूर है। ये पर्वत हैं। इन पहाडो में कई दरें हैं जिनके रास्ते कई विदेशी भारत आये। दर्रा खैबर समुद्र तल से 3,400 फुट ऊँचा । पेशावर को काबुल के साथ मिलाता है तथा इसी रास्ते बहुत से विदेशी हमलावर भारत आये। टोची, कुर्रम औ के दरें भारत को अफगानिस्तान से मिलाते हैं। बोलान का दर्रा बहुत विशाल है। यह भारत को कन्धार के साथ है। इस दरें को पार करना बहुत ही सरल है। इन्हीं दरों के रास्ते, अरब, यूनानी, कुशान, हूण, तुर्की, तातार, मगर नादिरशाह एवं अहमदशाह अब्दाली जैसे आक्रमणकारियों ने भारत पर हमले किये। ये दरें भारत के भाग्य को जिम्मेदार हैं। भारत के सम्राटों को इन दरों से खतरे को रोकने के लिये पूरा प्रबंध करना पड़ता था और जब ऐसा न किया जाता तो लोगों को भारी कठिनाईयो का सामना करना पड़ता था।
हिमालय के उत्तर-पूर्वी भाग पूर्वी संसार के साथ मेल-जोल में प्रतिरोधी सिद्ध हुए। ब्रह्मपुत्र घाटी से होकर चिंति घाटी तक जाने वाले दरों को पार करना बहुत संकटमय कार्य है। दूसरे दरै, जो मणिपुर (इम्फाल) से चिन्दविन घाटी स्थित हैं, इनको पार करना बड़ा कठिन है हालाँकि सन् 1943 में सुभाष चन्द्र बोस ने ऐसा करने का प्रयत्न किया। प्रदेश की जलवायु मलेरिया के कारण अच्छी नहीं है तथा बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना बहुत कठिन है। किसी ने भारतीय सम्राट् ने इन दरों के रास्ते बर्मा पर आक्रमण करने का प्रयास नहीं किया और न ही कभी बर्मा की ओर से किया गया। दूसरे महायुद्ध के समय बहुत से भारतीयों ने बर्मा से इन दरों के रास्ते आने का प्रयत्न किया पर उनमें से बहुत से लोग रास्ते में ही मर गये।
सिन्धु और गंगा
सिन्धु और गंगा नदियों के मैदानों की उपज तथा सम्पन्नता, इस प्रदेश में बड़े-बड़े साम्राज्यों की आरंभ का मुल कारण बनी। बड़े-बड़े राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं दार्शनिक विचार इस प्रदेश में पनपे। अधिकाँश संस्कृतसाहित्य की यहाँ पर ही रचना हुई। बौद्ध तथा जैन मत यहाँ पर ही फले-फूले। विद्या और संस्कृति के भण्डार तक्षशिला, नालन्दा, सारनाथ आदि इसी प्रदेश में निर्माण किए गए। इस प्रदेश की सम्पन्नता और उपजाऊपन ने यहाँ के लोगों को अन्य काम करने के लिए बहुत मात्रा में अवकाश प्रदान किया।
इस प्रदेश की नदियाँ संचार का सब से सरल साधन हैं इसलिए यही कारण है कि कई बड़े-बड़े शहर देश के इस भाग में बस गये। इस सम्बन्ध में पाटलिपुत्र, वाराणसी, प्रयाग, आगरा, दिल्ली, मुलतान तथा लाहौर और इसी तरह और भी शहरों के नाम उल्लेखनीय हैं। भारत के लगभग सारे इतिहास में ये मैदान राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहे। इस केन्द्र को दक्षिण में ले जाने का प्रयास निष्क्रिय रहा। इस सम्बन्ध में मुहम्मद तुगलक का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
सिन्धु तथा गंगा नदी एक ही दिशा में नहीं बहतीं। सतलुज एवं यमुना एक दूसरी के बीच बहुत बड़ी क्षेत्र को समेटे हुए हैं जो शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी से कुरुक्षेत्र तथा दूर राजपूताना तक फैली हुई है। इसी भूमि पर भारत को काबू में करने के लिए बहुत सी बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ [ महाभारत के समय से पानीपत की लड़ाई (1761) तक ] लड़ी गई।
यहाँ की भूमि की समृद्दि और उपजाऊपन के कारण दूसरे देशों के मुकाबले में भारतीय लोगों को जीवनयापन के लिए कठोर प्रयास नहीं करना पड़ता था। इसका नतीजा यह हुआ कि यहाँ के लोग लापरवाह और आरामपसन्द हो गए पुरुषत्व गंवा कर दूसरे मुसलमानों से हार गये।। और वे प्रबल विदेशियों के सामने न ठहर सके।
दक्षिण-भारत उत्तर भारत की राजनीति
दक्षिण-भारत उत्तर भारत की राजनीतिक उथल-पुथल से बिल्कुल अलग रहा तथा किसी भी उत्तर भारत के विज को दक्षिण भारत पर विजय अर्जित करने के लिए बहुत समय लगता। जब उत्तर भारत पर आर्यों का प्रभाव था तब भी दक्षिण द्राविड संस्कृति का केन्द्र बना रहा। अगस्त्य आर्य संस्कृति को दक्षिण ले गया। मौर्य, गुप्त, दिल्ली के सुल एवं मुगलों को भी इसी आपदा का सामना करना पड़ा। इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि आपदा में दक्षिण ने ही भारतीय संस्कृति को अपने दामन में छिपाये रखा। जब बौद्ध मत उत्तर भारत के अन्दर अपने जोर था तो
प्राचीन भारत के इतिहास के
भारत की एकता (Unity of India)
प्रोफेसर ई. जे. रैपसन कहते है कि भारतीय इतिहास के नाटक में अलग-अलग उद्भव के लोगों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई है। प्रत्येक युग में कुछ प्रदेशों तथा अधिकतर गंगा के मैदानों की सम्पन्नता और उपजाऊपन ने वाह्य संसार से आक्रमणकारियों को आकर्षित किया है। जनसंख्या में वृद्धि एवं भूमि के सूखने अर्थात् रेगिस्तान बनने के कारण हैं। यहाँ अलग – अलग भाषाएँ है; भिन्न-भिन्न लिपियाँ हैं तथा अनेक कबीलों के लोग रहते हैं। देश का विश ऐक्य को कठिन बनाता है। देश में एक राजनीतिक सत्ता की स्थापना हमेशा ही जटिल रही है। चन्द्रगुप्त मौर्य , अकबर और औरंगजेब के समय को छोड़कर भारत एक राजनीतिक सत्ता के आधीन नहीं रहा। उनके समय में भी एकता कुछ काल तक ही रह सकी।
ऐसा होते हुए भी यहाँ पर विविधता में एकता रही है। सारे देश में सदा ही समानता की भावना विद्यमान रही भारतवर्ष एकता के मूल सिद्धान्त पर जोर देता है। इस शब्द का महाकाव्यों एवं पुराणों में भी वर्णन आता है। विष्णा पुराण में हमें ऐसा उल्लेख मिलता है :
” उत्तरं यत् समुद्रस्य ।
हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षम् तद् भारतम् नाम।
भारती यत्र सन्ततिः। ”
” इसका अर्थ है कि भारत देश समुद्र के उत्तर में तथा बर्फीले पर्वतों के दक्षिण हिस्सों मे स्थित है। यहाँ भारत के वारिस निवास करते हैं। देश की ऐक्यभाव की एक ऐसी ही भावना धर्मशास्त्रियों, राजनीतिक दार्शनिकों तथा कवियों के मन में घर किये हुए थी जिन्होंने हिमालय से लेकर समुद्र तक फैली हुई सहस्रों योजन भूमि को एक ही चक्रवर्ती महाराजा की निजी जागीर बताया है।” उन्होंने चक्रवर्ती महाराजा के पद को प्राप्त करने वाले राजा की प्रशंसा की। एक चक्रवर्ती राजा से यह आशा की जाती थी कि वह अपना प्रदेश पूर्व में बर्फीले पर्वतों से लेकर दक्षिण में आदम के पुल तक तथा उत्तर में ब्रह्मपुत्र की घाटी से लेकर पश्चिम में सात मुहानों वाली सिन्धु नदी की भूमि तक फैलाए। एक समय था जब इस पुरे प्रदेश में प्राकृत भाषा का ही उपयोग होता था। इसके बाद संस्कृत को यह ख़्याति प्राप्त हुई रामायण तथा महाभारत देश मे हर जगह पढ़ी जाती थीं। वेदों को हर एक स्थान पर मान प्राप्त था और यही मान दूसरे संस्कृत साहित्य को भी प्राप्त था। जाति-पाँति की रूढ़ि, गाय का मान तथा सामान्य देवताओं की पूजा भारत के प्रत्येक प्रदेशों के रहने वाले लोगों को कुछ सामान्य बातें थीं। शंकराचार्य ने भारत के हर जगह में मठों की स्थापना की। हिन्दुओं के पवित्र स्थान सारे देश में फैले हुए हैं तथा एक यात्री अमरनाथ तथा बदरीनाथ में वैसा ही अनुभव करता है जैसा कि आदम के पुल की जलती रेत में। डा.वी.ए. स्मिथ का विवरण है कि ” भारतवर्ष निस्सन्देह गहरी अन्तर्निहित मौलिक एकता से अलंकृत रहा है जो किसी भौगोलिक विभाजन या राजनीतिक आधिपत्य से उत्पन्न एकता से अधिक गम्भीर है। वह एकता रक्त, रंग, भाषा, पहरावे, रीति-रिवाज तथा धर्म की अनेक भिन्नताओं से परे है।
भारत की यह मौलिक एकता अनेक कारणों से उत्पन्न हुई। भारत के इस उपमहाद्वीप में आकर रहने वाले लोगों ने शनैः-शनै: जीवन-यापन का एक सामान्य शैली अपना लि जिसका वर्णन सर एलफ़र्ड रिजले ने इस तरह किया है। ‘प्राकृतिक तथा सामाजिक ढंग की, भाषा, रीति-रिवाज और धर्म की अनेक विभिन्नताओं के पीछे भारत के प्रेक्षक को हिमालय से कन्याकुमारी तक एक प्रकार की अन्तर्निहित समानता के दर्शन होंगे।”इस एकता का दूसरी वजह हिन्दू मत का सारे देश में प्रचार था। धर्म की समानता देश की एकता की भावना में सहायक सिद्ध हुई। जैसा कि विवरण किया है कि तीर्थस्थान चाहे वे पूर्व में हों या दक्षिण में, सब हिन्दू इनकी यात्रा पर जाते थे तथा इनका भी एकता की भावना में योगदान रहा है। हिमालय ने भारत के उपमहाद्वीप को एशिया के दूसरे भाग से न्यारा किये रखा। चक्रवर्ती सम्राट् के भाव ने भी ऐक्य के उद्देश्य में वृद्धि की। अंग्रेजी शासन-काल में सारा भारत एक ही सत्ता के आधीन आ गया एवं शासन की एक सामान्य पद्धति सारे देश में लागू किया गया। अंग्रेजी भाषा सारे देश की सामान्य भाषा बन गई जिसने देश में एकता की विचार को उत्पन्न किया। रेलों तथा डाक व तार की स्थापना ने भी एकता के उद्देश्य को पनपने में सहायता परिदान की। भारत के स्वतन्त्र होने के पश्चात् सरदार पटेल के माध्यम से देशी रियासत एकीकरण ने सारे देश को एक इकाई में पिरो दिया।
Pingback: उपभोक्ता आंदोलन - The Creator