Contents
- 1 ऐतिहासिक बोध (Historical Sense)
- 2 (1) साहित्यिक स्त्रोत (Literary Sources) प्राचीन भारत के इतिहास के स्रोत
- 3 भारतीय साहित्य कुछ अंश तक धार्मिक है तथा कुछ अंश तक लौकिक है।”ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद” एवं ”अथर्ववेद धार्मिक साहित्य है। इनमें ”ऋग्वेद” प्राचीनतम है, जो आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास सम्बन्धी जानकारी देता है। वैदिक श्लोकों और संहिताओं की टीकाएँ “ब्राह्मणों में मिलती हैं। ये टीकाएँ गद्य में हैं। आरण्यकों” और ‘उपनिषदों में आत्मा, परमात्मा एवं संसार के सम्बन्ध में दार्शनिक विचारों का संग्रहण मिलता है। इनसे आर्यों के धार्मिक विचारों का चित्र पाठक के समक्ष मौजूद होता है। इनके अतिरिक्त और भी छ: वेदांग’ हैं । ‘शिक्षा’, ‘ज्योतिष’, ‘कल्प’, ‘व्याकरण, निरुक्त’ एवं ‘छन्द।। वेदों की स्पष्टता करने के लिए ही उस समय वेदांगों” की रचना की गई थी। समय की करवटों ने तरह तरह के विचारधाराओं को जन्म दिया। इन विचारधाराओं के आधारपे वेदों के विधिवत् पढाई पर बल दिया गया। इस तरह सूत्रों की रचना हुई। कल्पसत्रों” की रचना कर्मकाण्ड यानि की परम्पराओ को निभाने के लिए हुई। श्रौतसत्र महायज्ञ सम्बन्धी विद्या का स्त्रोत हैं।“गृह्यसूत्रों’ में गृहस्थ सम्बन्धी संस्कारों की चर्चा की गई। धर्मसूत्रों का सम्बन्ध धर्म एवं विधि से है।”शुल्बसूत्रों”दो में बलिवेदी तथा अग्निवेदी के परिमाण एवं रचना की चर्चा की गई है।
प्राचीन भारत के इतिहास के स्रोत (Sources of Ancient Indian History)
डॉ. आर.सी. मजूमदार का विचार है : इतिहास लेखन के मुताबिक़ भारतीयों की विमुखता भारतीय संस्कृति का भारी दोष है। इसका कारण बताना आसान नहीं है। भारतीयों ने साहित्य की अनेक शाखाओं से सम्बन्ध स्थापित किया तथा उनमें से कई विषयों में विशिष्टता भी प्राप्त की, पर फिर भी उन्होंने कभी गम्भीरतापूर्वक इतिहास-लेखन की तरफ ध्यान नहीं दिया।” अल्बरूनी (Alberuni) ने भी लगभग ऐसे ही विचार ज़ाहिर किए हैं, यथा : “हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की तरफ अधिक ध्यान नहीं देते। वे घटनाओं को काल क्रम के अनुसार लिपिबद्ध करने में अत्यन्त असावधानी से काम लेते हैं एवं जब कभी ऐतिहासिक जानकारी के लिए उन पर दबाव डाला जाता है । तो उत्तर देने में कार्यक्षम न होने पर वे कोई कहानी सुनाना आरम्भ कर देते हैं।’
ऐतिहासिक बोध (Historical Sense)
कुछ लेखकों ने तो यहाँ तक बताया है कि प्राचीन भारत के लोगों में ऐतिहासिक बोध था ही नहीं, किन्तु उपर्युक्त विचार को अब सामान्यतः स्वीकार नहीं किया जाता। डॉ. ए.बी. कीथ (A.B. Keith) जैसे Scholar भी यह स्वीकार करते हैं कि भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना का प्राचीन काल में भी अभाव नहीं थी । इसका प्रमाण कुछ ग्रन्थों तथा तथ्यों से प्राप्त होता है। भारतीयों की प्राचीनता एवं उनकी विकसित संस्कृति के रूप से दृष्टि हटाकर उनमें ऐतिहासिक चेतना के कमी को ढूँढना उपहास्य होगा।” किन्तु डॉ. कीथ यह भी ये कहते है । कि इतने विस्तृत संस्कृत साहित्य में इतिहास को कोई आधारभूत जगह प्राप्त न हो सकी तथा संस्कृत साहित्य के महान् काल में एक भी ऐसा लेखक नहीं हुआ । जिसे समालोचनात्मक इतिहासज्ञ (Critical historian) कह सके।” डॉ. कोथ ने इस तथ्य के विभिन्न कारण ढूंढने की चेष्टा की है। उसका विचार है कि यूनान पर होने वाले ईरानी आक्रमण ने जिस तरह हैरोडोटस (Herodotus) के इतिहास को प्रेरणा प्रदान की। वैसी प्रेरणा भारतीय राजनीतिक घटना-चक्रों से भारतीय विदानों को नही मिल सकी। भारत की आम जनता पर उस समय की राजनीतिक घटनाओं का इतना आसर नहीं पड़ा कि उनमें सर्वसाधारण को भाग लेना पड़े। ईसा पूर्व पहली शताब्दी में भारत पर होने वाले विदेशी हामले सम्भवतः इतने महत्त्वपूर्ण न थे कि लोगों में राष्ट्रीय भावना जागृत कर सकते। यही बात सिकन्दर, यूनानियों, पार्थियों, शकों, कुषाणों एवं हूणों के आपणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। भाग्यवादी भारतीयों के विरक्त रहने की वजह यह विचार था कि सभी घटनाएँ उनकी बुद्धि तथा दूरदर्शिता से परे हैं। उन्होंने चामत्कारिक घटनाओं को दिव्य कर्म, इन्द्र-जाल तथा माया-जाल स्वीकार किया। भारतीय बुद्धि विशेष घटनाओं की अपेक्षा सामान्यता को ज्यादा महत्त्व प्रदान करती है। सुनी-सुनाई बातो और वास्तविकता के अन्तर को समझने की उन्होंने कभी चेष्टा ने की। परिणामस्वरूप घटनाओं के क्रम की पूर्ण उपेक्षा कर दी गई और कालानुक्रम की ओर ख्याल न दिया गया।
इसके विरुद्ध, भारतीय विद्वानों की विचार यह है । कि भारतीयों में निर्णायकता ही ऐतिहासिक चेतना विद्यमान थी। ऐतिहासिक निबन्ध की विशाल विभिन्नता तथा अन्य अनेक तथ्य इस बात को सिद्ध करते हैं कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक विवेक विद्यमान थक था। डॉ.पी.के.आचार्य का विवरण है । कि कलिंग के राजा खारवेल, रुद्रदमन, समुद्रगुप्त, कन्नौज के सम्राट् हर्ष एवं चालुक्य, राष्ट्रकूट, पाल तथा सेन वंशी राजाओं के शिलालेखों से विश्वसनीय तिथियों सहित पर्याप्त ऐतिहासिक विशेष खबर प्राप्त होती है। इन अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं एवं दानदेनेवालो की वंशावलियों, राजाओं के कार्यों तथा दान की अवस्था का पता चलता है। इन शिलालेखों से ज्ञात होता है कि धर्मार्थ संस्थाओं के निर्माता कौन थे। उन्हें प्रतिष्ठित करने वाले के विषय में भी जानकारी भी उन्हीं से प्राप्त होती है। कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य वंशी राजाओं को बादामी के चालुक्य वंशी प्रारंभिक राजाओं की जानकारी राजवंशीय अभिलेखागारों (archives) से ही प्राप्त हुई। दक्षिणी कोंकण के शीलहर राजाओं ( Silaharas ) ने अपने शिलालेखों एवं अपने शासक राष्ट्रकूट वंशी राजाओं के शिलालेखों की हिफ़ाज़त की। उन्होंने राजावलियों और वंशावलियों को संगृहीत किया और उन्हें सुरक्षित अभिरक्षा में रखा। पूर्वी चालुक्यों द्वारा दिए गए उपहार में वंश के सभी राजाओं के नाम दिए गए हैं। जो वंश के संस्थापक से आद्यक होते हैं। कलिंग के पूर्वी गंग वंशी राजाओं ने अपनी वंशावलियों में तत्कालीन राजाओं का भी सविस्तार वर्णन किया है। नेपाल की एक लम्बी वंश-क्रम में उस देश के राजाओं के नाम, राज्य-काल तथा सिंहासनारूढ़ होने की तिथियाँ दी। गई हैं।उड़ीसा की वंश-क्रम में 3102 ईसा पूर्व तक के कलियुग के राजाओं की निरन्तर सूची दी गई है। उनके राज्य काल की अवधियाँ ही नहीं बल्कि प्रमुख घटनाओं की तिथियाँ भी दी गई हैं। जैन-मतावलम्बियों के निकट पट्टावलियाँ हैं। जिनमें वर्धमान महावीर की मृत्यु तक की सभी घटना लिखी हैं। पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में ऐसे भोज-पत्र हैं जिनमें भारत के प्राचीन इतिहास के विषय में विश्वसनीय और पूरा यक़ीन वाला बातें लिखी हैं। सर आर.जी. भण्डारकर और पीटरसन द्वारा संग्रहीत साहित्यिक पुस्तकों की भूमिकाओं तथा टिप्पणियों (colophons) में बहुत सी ऐतिहासिक तिथियाँ तथा अन्य सामग्री हासिल होती है। सोमदेव ने लिखा है कि उसने चैत्र शक् संवत् 881 (959 ई.) में अपनी कृत्य ”यशस्तिलक पूर्ण की जब कृष्णराज देव चालुक्य राज्य करता था।” पम्प द्वारा रचित ‘पम्प भारत’ एवं ”विक्रमार्जुन-विजय” में राजा अरिकेसरिन का ज़िक्र किया गया है । तथा उसके साथ-साथ उसकी गत सात पीढ़ियों का भी जिक्र किया गया है। जल्हण ने देवगिरि के भिल्लम, सिंहोना, कृष्ण, मल्लुगी आदि यादव राजाओं का जिक्र किया है। इन सभी बातों से साफ़ स्पष्ट है कि, प्राचीन हिन्दुओं में ऐतिहासिक समझ थी। अतः प्राचीन इतिहास सम्बन्धी उचित सामग्री प्राप्त की जा सकती है।
(1) साहित्यिक स्त्रोत (Literary Sources) प्राचीन भारत के इतिहास के स्रोत
भारतीय साहित्य कुछ अंश तक धार्मिक है तथा कुछ अंश तक लौकिक है।”ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद” एवं ”अथर्ववेद धार्मिक साहित्य है। इनमें ”ऋग्वेद” प्राचीनतम है, जो आर्यों की राजनीतिक प्रणाली एवं इतिहास सम्बन्धी जानकारी देता है। वैदिक श्लोकों और संहिताओं की टीकाएँ “ब्राह्मणों में मिलती हैं। ये टीकाएँ गद्य में हैं। आरण्यकों” और ‘उपनिषदों में आत्मा, परमात्मा एवं संसार के सम्बन्ध में दार्शनिक विचारों का संग्रहण मिलता है। इनसे आर्यों के धार्मिक विचारों का चित्र पाठक के समक्ष मौजूद होता है। इनके अतिरिक्त और भी छ: वेदांग’ हैं । ‘शिक्षा’, ‘ज्योतिष’, ‘कल्प’, ‘व्याकरण, निरुक्त’ एवं ‘छन्द।। वेदों की स्पष्टता करने के लिए ही उस समय वेदांगों” की रचना की गई थी। समय की करवटों ने तरह तरह के विचारधाराओं को जन्म दिया। इन विचारधाराओं के आधारपे वेदों के विधिवत् पढाई पर बल दिया गया। इस तरह सूत्रों की रचना हुई। कल्पसत्रों” की रचना कर्मकाण्ड यानि की परम्पराओ को निभाने के लिए हुई। श्रौतसत्र महायज्ञ सम्बन्धी विद्या का स्त्रोत हैं।“गृह्यसूत्रों’ में गृहस्थ सम्बन्धी संस्कारों की चर्चा की गई। धर्मसूत्रों का सम्बन्ध धर्म एवं विधि से है।”शुल्बसूत्रों”दो में बलिवेदी तथा अग्निवेदी के परिमाण एवं रचना की चर्चा की गई है।
आज हमने इस लेख मे प्राचीन भारत के इतिहास के स्रोत के बारे मे जानकारी ली